छात्र संघ चुनाव: भारतीय राजनीति का दरकता स्तंभ
इस रिपोर्ट की शुरुआत करते वक्त मेरा ध्यान सिर्फ एक शहर पर था "कानपुर पर" और तब तक इस रिपोर्ट का नाम भी वही था "कानपुर और छात्र संघ चुनाव" पर जैसे जैसे मैंने इस पर रिसर्च शुरू की मुझे ना चाहते हुए भी रिपोर्ट के दायरे और प्रकार दोनों को विस्तार देना पड़ा...
रिपोर्ट पर जाने से पहले आप जान लें कि आपको यह क्यों पढ़ना चाहिए और इसके परिणाम मौजूदा राजनीति में कितने व्यापक हो रहे हैं
- यूपी के 3 बड़े शहरों कानपुर ,लखनऊ, गोरखपुर में पिछले करीब 7- 8 वर्षों से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए हैं
- भारतीय राजनीति की दशा व दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले दिल्ली के जेएनयू में भी छात्र संघ चुनाव कई सालों तक बाधित रहे
- बिहार में सन 1987 से छात्र संघ चुनाव नहीं हुए
- मौजूदा राजनीति में पिछले 6-8 सालों में युवा नेतृत्व अगर विश्वविद्यालय से नहीं शामिल हुआ तो आया कहां से या तो कुछ तथाकथित राजनीतिक पार्टियों की चमचागिरी करके… या पैसे के बल पर.. या दबंगई .. अथवा गुंडागर्दी करके, इसके नमूने के तौर पर आप यूपी प्रतापगढ़ के राजा भइया (रघुराज प्रताप सिंह) पूर्व खाद्य आपूर्ति मंत्री उत्तर प्रदेश सरकार को ले लें या फिर कानपुर कैंट प्रत्याशी घोषित इलाहाबाद के अतीक अहमद को हालांकि बाद में अतीक को प्रत्याशी पद से हटा दिया गया था।
साल 2006 और लिंगदोह
साल 2006 पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेम्स माइकल लिंगदोह ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें उन्होंने विश्वविद्यालय और कॉलेजों में होने वाले छात्र संघ चुनाव कराने के संबंध में कुछ नियम सुझाए जिसमें उम्मीदवार छात्रों की आयु, उपस्थिति आदि के मानक थे जिसका असर यह था कि कई उम्मीदवार चुनाव की दौड़ से यूं ही बाहर हो गए! जिसके लिए छात्रों ने काफी विरोध प्रदर्शन किया।
विरोध को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज़ को एक सर्कुलर जारी किया जिसमें साफ कर दिया गया था कि भविष्य में यदि छात्र संघ चुनाव होंगे तो लिंगदोह की सिफारिशों के आधार पर ही होंगे।
कई राज्यों.…. कई शहरों…. और कई छात्र यूनियनों… ने कई सालों तक इसका विरोध किया पर समय बीतने के साथ साथ विरोध भी हल्का होता गया और कई राज्यों में छात्रों ने लिंगदोह की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए चुनाव के लिए हामी भर दी ।
कानपुर, लखनऊ और गोरखपुर
लेकिन कानपुर, लखनऊ और गोरखपुर जैसे शहरों में स्थिति थोड़ी जटिल हो चुकी थी छात्र नेताओं के प्रदर्शन को उपद्रव की संज्ञा देते हुए कॉलेज प्रशासन ने इससे निजात पाना ही तय कर लिया था… यहां कानपुर में पी पी एन कॉलेज की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में एक याचिका(संख्या 7712/2012) दाखिल की जिसके बाद से ही हाईकोर्ट की तरफ से यहां छात्र संघ चुनावों पर रोक लगा दी गई।
हमने मौजूदा स्थिति को और अधिक व्यापक ढंग से समझने के उद्देश्य से अतुल प्रधान जी से संपर्क किया अतुल प्रधान समाजवादी युवा सभा के अध्यक्ष रह चुके हैं और इस वक्त सपा के सशक्त युवा नेताओं में से एक हैं|
अतुल जी से जब हमने फोन पर संपर्क किया तो हमारे छात्र संघ चुनावों को लेकर कुछ सवाल थे जिनके जवाब उन्होंने कुछ इस प्रकार दिए:
प्रश्न 1: आप जून 2017 में लखनऊ में थे और सपा के छात्र नेताओं को एकजुट कर के छात्रसंघ चुनाव को लेकर मौजूदा योगी सरकार के खिलाफ एक आंदोलन करना चाहते थे ?
उत्तर: जी
प्रश्न 2: तो आपके हिसाब से यूपी के कई शहरों में छात्रसंघ चुनाव ना होने की क्या वजह है?
उत्तर: दरअसल लोग जरा जरा सी बात पर कोर्ट चले जाते हैं इस वजह से यह मामला रुका हुआ है अब जब तक कोर्ट से सुनवाई ना हो क्या कह सकते हैं।
प्रश्न 3: अभी कुछ समय पहले आपकी पार्टी सत्ता में थी उसके बाद भी वह छात्र संघ चुनाव करवा पाने में सफल नहीं हुई क्यों?
उत्तर: नहीं ऐसा नहीं है हमारे समय में छात्रसंघ चुनाव हुए हैं आप पता कीजिए।
प्रश्न 4: जी मै प्रदेश के 3 बड़े शहरों कानपुर, लखनऊ ,गोरखपुर की बात कर रहा हूं जहां लगभग 7- 8 सालों से चुनाव नहीं हुए?
उत्तर: दरअसल लिंगदोह कमेटी के विरोधाभासों के कारण हम इसके विरोध में हैं जिस वजह से कॉलेज प्रशासन ने कोर्ट से स्टे ले रखा है।
प्रश्न 5: किन विरोधाभासों की आप बात कर रहे हैं?
उत्तर: कई है जैसे कि चुनाव खर्च की बात कीजिए 5000/- से ज्यादा नहीं होना चाहिए… हम प्रिंटेड मैटर से प्रचार नहीं कर सकते .. जो कि आज के हिसाब से संभव नहीं है हर कॉलेज यूनिवर्सिटी की अपनी अलग स्थिति होती है कहीं पर बच्चे बहुत अधिक हैं कहीं कम तो आप एक सीमित बजट और नियम के साथ कार्य नहीं कर सकते।
प्रश्न 6: तो आपके हिसाब से कमेटी के नियमों में वक्त के हिसाब से परिवर्तन होना चाहिये?
उत्तर: जी बिल्कुल जब नियम बने थे तब की और अब की स्थिति में बहुत बदलाव आया है तो नियमों में क्यों नहीं।
प्रश्न 7: आप की सरकार ने साफ तौर पर हिदायत दी थी कि चुनाव सिर्फ लिंगदोह कमेटी के आधार पर ही होंगे जिसके बाद ही कॉलेजों ने चुनाव पर यह कहकर स्टे ले लिया कि छात्र कमेटी के हिसाब से चुनाव नहीं चाहते?
उत्तर: जी।
प्रश्न 8: तो मेरा प्रश्न यह है कि आप आज की सरकार का विरोध कर रहे हैं पर उस वक्त आपने आवाज क्यों नहीं उठाई जब सपा खुद सत्ता में थी?
उत्तर: नहीं नहीं तब ऐसा कुछ नहीं था स्थिति ऐसी नहीं थी प्रदेश के कई शहरों में चुनाव हुए और आगे भी होते रहेंगे रही बात कानपुर लखनऊ और गोरखपुर की तो यहां के कॉलेजों ने कोर्ट से स्टे ले रखा है तो उस स्थिति में सुनवाई के बाद ही कुछ हो पाएगा।
प्रश्न 9: कॉलेजों का कहना है कि छात्र नेता उपद्रव मचाते हैं हिंसा करते हैं पढ़ाई और क्लासेज पर उसका असर पड़ता है और लिंगदोह समिति के हिसाब से चुनाव होने से यह सब रुकेगा इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर: देखिए यह गलत है उपद्रव कुछ छात्रों की वजह से होता है जिन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए। प्रशासन खुद विफल रहता है तैयारियों में और खुद जिम्मेदारी न निभा कर छात्रों को नियमो में बांध देना कहां तक उचित है। वो अपना कार्य ठीक से नहीं करते इसलिए अराजकता फैलती है।
प्रश्न 10: कुछ छात्र नेताओं का जो कि निर्दलीय लड़ते हैं अक्सर आरोप लगाते हैं कि राजनीतिक पार्टियों के युवा संगठन उनको दबाव में लेने का कार्य करते हैं उन को डराया धमकाया जाता है?
उत्तर: नहीं असल में होता यह है कि अगर आप अकेले हैं तो आपकी कौन सुनेगा कॉलेज प्रशासन आपकी बात माने लोग आप को सुने इसके लिए आपके पास कुछ आधार होना चाहिए अतः यह संगठन जरूरी हैं और वैसे भी आप छात्र राजनीति से आगे बढ़ने के बाद किसी ना किसी को तो चुनेंगे ही तो पहले से ही क्यों नहीं।
इसके बाद कुछ और प्रश्नों के उत्तर हम चाहते थे पर अतुल जी ने व्यस्तता जाहिर करते हुए फोन काट दिया।
आपको बता दें की हाई कोर्ट की तरफ से पी पी एन कॉलेज की रिट पिटीशन की आखिरी सुनवाई 28/09/2012 को हुई थी और सुनवाई की अगली डेट अभी तक तय नहीं है।

अब अगर हम इन सभी बातों का सार समझने की कोशिश करें तो इस पूरी प्रक्रिया में एक घिनौनी साजिश की बू आती हुई महसूस होती है यह सभी बातें इस बात का साफ सबूत पेश करती हैं कि सत्ता में रहने वाली चाहे कोई भी सरकार क्यों ना हो वह युवा सोच को राजनीति के असल उद्देश्य से विमुख कर देना चाहती है|
इसे समझने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है:
- लिंगदोह समिति का गठन करके उसके नियमों को छात्रों पर थोप देना|
- सत्ता में बैठी सरकारों का डर ….कि यदि बुद्धिजीवी राजनीति का हिस्सा बने तो शायद उनके लिए यह खतरा होंगे क्योंकि भारतीय इतिहास का जे पी आंदोलन इस बात का गवाह है कि छात्र नेतृत्व सत्ता को हिला सकता है|
- छात्र संघ को कमजोर करने के उद्देश्य से सरकारों ने पहले छात्र संघ को भ्रष्ट किया उसमें माफिया ,दबंगों आदि को शामिल होने दिया, उन्हें पैसों का लालच दिया गया इस प्रकार छात्रसंघों की गरिमा और साख खत्म की और फिर काफी हद तक छात्र संघ को ही खत्म कर दिया|
- लालू प्रसाद यादव जो की खुद छात्र राजनीति से आए उन्होंने 15 साल सत्ता में रहते हुए भी छात्र संघ चुनाव नहीं कराए….
- इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सन 2015 अक्टूबर में छात्रसंघ अध्यक्ष पद के लिए खड़ी हुई निर्दलीय प्रत्याशी रिचा सिंह ने एक न्यूज वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में बताया कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के युवा संगठन ABVP ,एनएसयूआई तथा समाजवादी छात्र सभा आदि के उम्मीदवार कारो के काफिले से आते हैं और चुनाव प्रचार करते हैं निर्दलीय प्रत्याशियों पर ओछी टिप्पणियां करते हैं और यदि प्रत्याशी महिला है तो टिप्पणियां भद्दी भी हो जाती है हालांकि उन्हें इन चुनावों में जीत हासिल होती है और अपने काम को पूरी प्रतिबद्धता से करती हैं सब ठीक चल रहा होता है लेकिन फिर वह उस वक्त गोरखपुर के सांसद और यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ के कैंपस फंक्शन में आने का विरोध करती हैं जिन्हें ABVP की तरफ से निमंत्रण दिया गया था वह उनका विरोध उनके द्वारा दी गई नस्ली टिप्पणियों जातिवादी भाषणों के कारण करती हैं जिसका जल्द ही उन्हें इनाम मिलता है यूनिवर्सिटी उनकी जीत पर सवाल खड़े कर देती है उनके ऊपर छात्रसंघ के फंड के गलत इस्तेमाल के आरोप लगते हैं सात से आठ कमेटी उनके मामले की जांच के लिए गठित की जाती हैं और अंततः उन्हें यूनिवर्सिटी से निकलना पड़ता है कोई रास्ता ना देखकर आख़िर में वह समाजवादी पार्टी को अप्रैल 2016 में ज्वाइन कर लेती हैं…..
- राष्ट्रीय दलों के युवा संगठन उन्हें वह ताकत देते हैं जिसे छात्र नेता निर्दलीय रह कर नहीं पा सकते और फिर जब छात्र नेता किसी पार्टी विशेष से जुड़ जाता है तो वह ना तो देश के बारे में सोचता है ना ही स्टूडेंट के बारे में वो सिर्फ उस पार्टी के बड़े पदों पर बैठे उन घोर राजनीतिज्ञों की चापलूसी करके महामंत्री…. कोषाध्यक्ष… आदि पदों के सपनों में खो जाता है….
और इस प्रकार इन बड़े राजनीतिज्ञों का तथाकथित षड्यंत्र सफल होता दिखाई देता है जिसे उन्होंने वर्षों पहले से रचना शुरू कर दिया था जिसका असर आज देश के युवाओं में साफ दिख रहा है वह अपनी अपनी तथाकथित पार्टी का समर्थक बन बैठा है.. वह विरोध नहीं सुन सकताअपने दल का…अपने राजनेता का…. वह संवेदनशीलता खो चुका है वह भटक गया है…
विश्व के सबसे युवा देश का युवा आज षड्यंत्र का शिकार हो चुका है उसको चाहिए कि छात्र शक्ति को पहचाने और देश के लिए लड़े किसी नेता के लिए नहीं!!!
जाहिर है कि यह भारतीय राजनीति का सबसे कठिन समय है क्योंकि इससे फायदा किसी का भी हुआ हो नुकसान सिर्फ देश का हुआ है।
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