नए दशक की शुरुआत पर नई व पुरानी बातों एहसासों से भरी नज्में
नए साल और दशक की शुरुआत कीजिये उन नज्मों के साथ जो आपको ले जाती हैं एक रूहानी एहसास की ओर और जीवन के विभिन्न पहलुओं से करवाती हैं आपका साक्षात्कार..
नए लोग आये अगर देखने..
पुराना तमाशा भी चल जायेगा!
शारिक कैफ़ी
नया आने वाला ज़माना हमारा – सलाम मछली शहरी
है रौशन हक़ीक़त फ़साना हमारा
नई ज़िंदगी बन के बिखरेगा हर सू
नई रौशनी का तराना हमारा
नया आने वाला ज़माना हमारा
पुराने चराग़ों के मद्धम उजालो
हमारे ही हाथों सजेगी ये महफ़िल
हमें सिर्फ़ बच्चा समझ कर न टालो
नया आने वाला ज़माना हमारा
तुम्हारी बुज़ुर्गी का है पास हम को
मगर इस नए दौर की रौशनी में
है अपने फ़राएज़ का एहसास हम को
नया आने वाला ज़माना हमारा
ये दौर-ए-शबाब बहार-ए-ज़मीं है
तुम्हारा ज़माना तो जैसा रहा हो
नया आने वाला ज़माना हसीं है
नया आने वाला ज़माना हमारा
नया साल – मख़दूम मुहिउद्दीन
करोड़ों बरस की पुरानी
कुहन-साल दुनिया
ये दुनिया भी क्या मस्ख़री है
नए साल की शाल ओढ़े
ब-सद-तंज़ हम सब से ये कह रही है
कि मैं तो ”नई” हूँ
हँसी आ रही है
एक ख़्वाब – बिलाल अहमद
पुरानी क़ब्रें अधूरे चेहरे उगल रही थीं
अधूरे चेहरे पुरानी क़ब्रों की सर्द-ज़ा भुरभुरी उदासी जो अपने ऊपर गिरा रहे थे
तो आरिज़ ओ चश्म ओ लब की तश्कील हो रही थी
वो एक कुन जो हज़ार सदियों से मुल्तवी था अब उस की तामील हो रही थी
क़ुबूर-ए-ख़स्ता से गाह ख़ेज़ाँ ओ गाह उफ़्तां, हुजूम-ए-इस्याँ
हर एक रिश्ते से, हर तअल्लुक़ से मावरा था
गए दिनों की मोहब्बतों को, रक़ाबतों को, सऊबतों को भुला चुका था
हुजूम अपने अज़ल के मक़्सूम के मुताबिक़
ख़ुद अपने अंजाम के जुनूँ में कशाँ कशाँ राह काटता था
ज़माना अपने जमाल को तर्क कर चुका था
जलाल उस के बुज़ुर्ग चेहरे की हर शिकन में दुबक गया था
बुज़ुर्ग चेहरा, हमेश्गी का क़दीम चेहरा
अज़ल से इस दिन का मुंतज़िर था
कि कब ये अम्बोह-ए-ख़ाकसाराँ
ख़ुद अपने आमाल के खनकते हुए सलासिल में ग़र्क़ आए
गुनाह बरते सवाब पाए
वालिद साहब के नाम – ताहिर शहीर
अज़ीज़-तर मुझे रखता है वो रग-ए-जाँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
वो माँ के कहने पे कुछ रो’ब मुझ पे रखता है
यही है वज्ह मुझे चूमते झिझकता है
वो आश्ना मिरे हर कर्ब से रहे हर दम
जो खुल के रो नहीं पाता मगर सिसकता है
जुड़ी है उस की हर इक हाँ फ़क़त मिरी हाँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
हर एक दर्द वो चुप-चाप ख़ुद पे सहता है
तमाम उम्र वो अपनों से कट के रहता है
वो लौटता है कहीं रात देर को दिन भर
वजूद उस का पसीने में ढल के बहता है
गिले हैं फिर भी मुझे ऐसे चाक-दामाँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
पुराना सूट पहनता है कम वो खाता है
मगर खिलौने मिरे सब ख़रीद लाता है
वो मुझ को सोए हुए देखता है जी भर के
न जाने सोच के क्या क्या वो मुस्कुराता है
मिरे बग़ैर हैं सब ख़्वाब उस के वीराँ से
ये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
एक नज़्म – आनिस मुईन
दानिश-वर कहलाने वालो
तुम क्या समझो
मुबहम चीज़ें क्या होती हैं
थल के रेगिस्तान में रहने वाले लोगो
तुम क्या जानो
सावन क्या है
अपने बदन को
रात में अंधी तारीकी से
दिन में ख़ुद अपने हाथों से
ढाँपने वालो
उर्यां लोगो
तुम क्या जानो
चोली क्या है दामन क्या है
शहर-बदर हो जाने वालो
फ़ुटपाथों पर सोने वालो
तुम क्या समझो
छत क्या है दीवारें क्या हैं
आँगन क्या है
इक लड़की का ख़िज़ाँ-रसीदा बाज़ू थामे
नब्ज़ के ऊपर हाथ जमाए
एक सदा पर कान लगाए
धड़कन साँसें गिनने वालो
तुम क्या जानो
मुबहम चीज़ें क्या होती हैं
धड़कन क्या है जीवन क्या है
सत्तरह-नंबर के बिस्तर पर
अपनी क़ैद का लम्हा लम्हा गिनने वाली
ये लड़की जो
बरसों की बीमार नज़र आती है तुम को
सोला साल की इक बेवा है
हँसते हँसते रो पड़ती है
अंदर तक से भीग चुकी है
जान चुकी है
सावन क्या है
इस से पूछो
काँच का बर्तन क्या होता है
इस से पूछो
मुबहम चीज़ें क्या होती हैं
सूना आँगन तन्हा जीवन क्या होता है