वेब सीरीज़ रिव्यू: पंचायत सीज़न 2
कभी कभी ऐसा होता है कि हम अपनी एक पुरानी कमीज को वाशिंग मशीन में डालने से पहले उसकी जेबें चेक करते हैं. ताकि उसमें कोई कागज़ या फिर कोई और चीज हो तो धुलने से बच जाए और कपडे खराब न हो. उसी क्रम में यदि कभी 500, 200 या दस रुपये का नोट भी मिल जाए तो बहुत ख़ुशी होती है.
पंचायत सीरीज का अपने तय समय 20 मई से पहले ही आ जाना भी एक ऐसी ही सौगात देकर गया. मन में पिछले 2 सालों से उम्मीदें थी कि फिर से फुलेरा का वो पंचायत भवन देखने को मिलेगा, बात बात पर गाँव के लोगों में फकुली बाज़ार जाने कि बेकरारी दिखेगी. गाँव में मौजूद उस ऊँचे वाटर टावर से दूर से ही गाँव के बेहद करीब होने कि भावना उत्पन्न होगी. दिल्ली-गुडगाँव जैसे महानगरों के अपने कमरों में लैपटॉप के सामने समय बिताने वाले लोगों को इस सीरीज के माध्यम से दुबारा अपने गाँवों में लौटने का एक मौक़ा मिलेगा.
किसके लिए है पंचायत?
एक मौक़ा फिर से अपने घर के दालानों में अपने खेत खलिहान देखते हुए सुस्ताने का. मौक़ा, फिर से गाँव कि छोटी नज़र आने वाली बड़ी बड़ी पोलिटिक्स का हिस्सा बनने का. आम के खट्टे अमियों में बचपन के रोमांच का नमक लगाकर चखने का. पंचायत उन लोगो के लिए नोस्टाल्जिया का वो विंडो है जिनका जीवन का एक बड़ा हिस्सा बिल गेट्स के विंडो के सामने ज्यादा बितता है. वो लोग जो कभी किसी जमाने में आंधी अंधड़ के समय आम के पेड़ों से टूटने वाले अधपके फलों के पीछे भागते थे अब स्टीव जॉब्स के आधे कटे सेब के पीछे भागते हुए अपने जीवन की किसी डगर या गली में गिरते फिरते हैं. यह सीरीज इन लोगों को कुछ देर के लिए कदम संभालकर चलने का मौक़ा देती है.
कौन है पंचायत का मुख्य किरदार?
अमूमन ऐसे कम ही वेब शो या सीरीज होते हैं जो अपने पहले सीजन का जादू दुसरे सीजन में भी दिखा पाते हैं. पंचायत उन कथानकों में से एक है जिसमें दूसरी बार भी वही मिठास और वही पाकीज़गी है जैसी पहले सीजन में थी. फुलेरा वैसा का वैसा ही है जैसे पिछले सीजन में था. समस्याओं और समाधानों के हार्ड चोको शेल के बीच हास्य का कैरामेल ही इस सीरीज कि मुख्य विशेषता है. कोई फूहड़पन नहीं है. जितनी भी गालियों का इस्तेमाल हुआ है वो सब के सब एकदम वैसे ही लगती है कि जैसे ये गालियाँ न होती तो शायद गाँव का एक पक्ष सही ढंग से दर्शाया नहीं जा पाता. पहले सीरीज में यह सोचना पड़ा था कि इसका मुख्य किरदार कौन है? लेकिन इस सीजन में यह लगा कि इस सीरीज का मुख्य किरदार बलिया जिले का गाँव फुलेरा है. वह फुलेरा जहाँ भूषण भी हैं विनोद भी है और गुस्से में शाम को फकुली बाज़ार से बीबीपुर जाकर नाच देखने वाले परमेशर भी हैं.
कहानी और मुद्दा
सीरीज में भले ही हर एपिसोड कि कहानी का मुद्दा अलग अलग है लेकिन आखिरी एपिसोड तमाम नदियों का एक समंदर में जाकर खारे पानी में तब्दील होने जैसा ही है. बस फर्क इतना है कि इस खारेपन का खारापन समुन्द्र जैसा नहीं आंसुओं के खारेपन जैसा है. बारीकी भी इतनी बरती गयी है कि कोई आलोचना करने वाला भी यह नहीं कह सकता कि इसमें वैसा नहीं दिखाया गया है जैसे सच में गांवों में होता है. सीरीज के आखिरी एपिसोड में एक सीन है जिसमें सीरीज के एक मुख्य किरदार के घर किसी का देहांत हो जाता है. जब बाकी के किरदार इस मुख्य किरदार के लिए खाना परोसते हैं तो खुद अनाज खाते हैं लेकिन उसे फल परोसते हैं. यूपी बिहार कि तरफ हिन्दू धर्म में अगर किसी के घर कोई मृत्यु होती है तो आग देने वाले शख्स को काफी दिनों तक सामान्य से हटकर खाना दिया जाता है. जहाँ बाकी के फिल्मों या वेब सीरीज में ऐसी बातों को नजरअंदाज किया जाता है वहीँ इस सीरीज में इन बारीकियों को समझा गया जो कि वाकई काबिले तारीफ़ हैं.
पूरा गाँव एक तरफ और भूषण एक तरफ
सीरीज के किरदारों कि बात करें तो भूषण और गुल्लक कि बिट्टू कि मम्मी का किरदार भी काफी बढ़िया लिखा गया है. हर गाँव में एक भूषण जैसा आदमी होता है जिसे हर चीज कि चुल होती है. उसका मुख्य काम बस एक चौपाल से दुसरे चौपाल एक दालान से दुसरे दालान जाकर वो काम करना होता है जो आजकल देश कि मीडिया बड़े खूबसूरत अंदाज में निभा रही है.
क्या अलग है इस बार फुलेरा की पंचायत में?
पिछले सीरीज में घर के चाहरदीवारी के बीच कैद रहने वाली रिंकी का अचानक इस तरह बाहर दिखने लगना थोड़ा पचाने लायक नहीं है लेकिन कोई बात नहीं इतना चलता है. जब आप बस एक सीरीज भर का कंटेंट लिखते हैं और बाद में पता चलता है कि सीरीज तो हिट हो गयी है तब फिर दुबारा कहानी लिखनी होती है और ऐसे में थोड़ा बहुत इधर उधर होना सामान्य है. रिंकी दिखने में वैसी ही लगती है जैसे आज के जमाने में गाँव कि लडकियाँ लगती हैं. अब पहले कि तरह नहीं रह गया कि लड़की है तो सारा दिन चूल्हा चौका में ही लगी रहेगी. रिंकी गाँव कि है लेकिन मोबाइल चलाती है. बात चीत से भी समझदार लगती है हालांकि रिंकी में अब भी राजीव जी को सबक सिखाने कि हिम्मत नहीं होती है इसलिए वह सचिव जी के पास जाती है. रिंकी बहुत कम समय के स्क्रीन स्पेस में भी काफी प्रभाव छोडती नजर आती हैं.
चलते चलते – कोई भी किसी को उस तरह से पागल नहीं बोलता है
गाँव में ये मह्निश बहल का आइडियोलॉजी काफी प्रचलित है कि एक लड़का लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते. अगर एक जवान लड़का लड़की में थोड़ा सा भी बातचीत हुआ तो वो सबके नजर में आ जाते हैं. इसलिए विकास का इन दोनों के बीच प्रेम प्रसंग उपजने का शक होना बिलकुल लाजिमी है. क्यूंकि यह बात सच है कि कोई भी किसी को उस तरह से पागल नहीं बोलता है.
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