निर्मल पाठक की घर वापसी: वेब सीरीज़ रिव्यू
बात से पहले की बात
निर्मल पाठक पर बात शुरू करने से पहले की कुछ बातें, आज के जमाने में अगर कभी किसी कि बात न सुननी हो, सामनेवाले को नजरअंदाज करना हो या यह जाताना हो कि मैं तुम्हारी बातें नहीं सुन रहा, तब काफी लोग कान में ईयरफोन लगाकर तेज गाने सुनते हैं. यह लोगो का एक एस्केप होता है. अपना खुद का बनाया हुआ एस्केप जहाँ पर सिर्फ आपका पसंदीदा गीत बजता है. आपको बाकी दुनिया कि कोई खबर नहीं होती.
कई लोग ऐसे भी होते हैं जो गाने नहीं सुनते या इयरफोन नहीं लगाना चाहते हैं. ऐसे लोग अमूमन एस्केप करने के लिए झाड़ू लगना शुरू कर देते है, या बर्तन मांजना शुरू कर देते हैं या फिर चावल चुनना शुरू कर देते हैं. चावल चुनना एक ऐसा काम है जो अब शायद आजकल के नए घरों में नहीं होता क्यूंकि बाजार से ऐसा चावल आता है जिसमें कंकड़ या घुन नहीं होते. लेकिन एक जमाने में चावल चुनना भी एक काम था. यह एक ऐसा काम था जो बाकी के कामों से थोड़ा कम ज़रूरी था इसलिए ये काम दोपहर में या ऐसे समय में किया जाता था जब सब जरुरी काम खत्म हो चुके होते हैं. कई बार लोग इसलिए भी चावल चुनना शुरू कर देते हैं ताकि वो सामने वाले को बता सके कि वो व्यस्त हैं. बीजी हैं और उनका ध्यान सिर्फ चावल चुनने में है.
हाल ही में सोनी लिव पर आई सीरीज ‘निर्मल पाठक कि घर वापसी’ के शुरुआत कि बात करें तो यह भारतीय रेल के एसी बोगी के साइड लोवर बर्थ पर सो रहे निर्मल पाठक के नींद टूटने से शुरू होती है. लेकिन जिस तरह से मैं यह सीरीज देख रहा था उस तरह से इस सीरीज कि शुरुआत तब होती है जब वो औरत 24 साल से घर से भागे हुए पति के मृत्यु कि खबर सुनती है. वो औरत जिसके 27 वर्षीय बच्चे को अभी 1 2 महीने पहले पता चला है कि उसकी सगी माँ वो औरत है जो जिला बक्सर के एक गाँव के घर में सालों से अपने पति और बेटे कि राह तक रही है.
“मुझे बस चाय दिखी”
‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ भी हाल ही में आई सीरीज पंचायत कि तरह गाँव कि कहानी कहती है. हालांकि, पंचायत के फुलेरा और बिहार राज्य के बक्सर जिले के इस गाँव में काफी फर्क है. पंचायत में शहर से आए हुए सचिव जी थे, गाँव के स्वघोषित प्रधान दुबे जी थे, उप प्रधान प्रहलाद पाण्डेय थे, पर्मेषर मिश्रा थी हालांकि इस गाँव में कोई दुक्खन नहीं था. बड़े घरों में चीनी मिटटी कि टूटी कप में चाय पिने वाला लिब्लिबिया नहीं था. वो किरदार नहीं जो यह पूछे जाने पर कि तुमलोग बदलाव क्यूँ नहीं चाहते तब वह यह उत्तर देता है कि आपको बड़े जाती के घर में बस मेरा टूटी चीनी मिटटी के बर्तन में चाय पीना दिखा, लेकिन मुझे बस चाय दिखी. मेरे लिए यही बड़ी बात है कि एक बड़े जात के घर में मुझे कम से कम चाय तो मिल रही है.
यह गाँव पंचायत के फुलेरा कि तरह छोटी छोटी समस्याओं से घिरा नहीं है. इस गाँव में जातिवाद नामक एक शैतान है जो सिर्फ उन्हें भाता है जिनकी आँखों में बाबासाहेब आंबेडकर के सिद्धांत किरकिरी का काम करते हैं. इस गाँव में संस्कार है. यहाँ कि लड़कियां अपने पिता के मर्जी से शादी करती हैं. पिता के मर्जी का कपड़ा पहनती है. ऊपर से सब नार्मल है कुछ नहीं दिखता लेकिन समानता का जीरो पॉवर वाला भी चश्मा पहनने पर इन लड़कियों के इर्द गिर्द जकड़ी हुई लोहे कि मजबूत बेड़ियाँ नजर आती है. इस सीरीज में यह ख़ास चश्मा बस सीरीज के नायक ने पहना है. और बस इसी चश्मे कि वजह से इस सीरीज कि कहानी उभरकर इतने सशक्त ढंग से आई है.
इस सीरीज कि कहानी है निर्मल पाठक नामक एक शख्स कि जो पहली बार वहां जा रहा है जहाँ उसके पिता का जन्म हुआ, जहाँ उसके दादाजी रहते हैं, जहाँ उसकी वो माँ रहती है जिसने उसे जना है. वो माँ जिसे ज्यादा हिंदी बोलना नहीं आता. जो इतने सालों के बाद अपने बेटे को देखकर ख़ुशी से अघाई हुई रहती है. उसके मन में एक उम्मीद बंधती है कि जैसे आज बेटा आया है वैसे ‘वो’ भी आयेंगे. यहाँ महिलायें अपनी पति को नाम से संबोधित नहीं करती. वो माँ जो बेहोश हो जाने के बाद जब होश में आती है तो सामने बेटे को देख के यह कहती है कि “खाना खईलs हs नs”.
पहली बार जब छपरा-बलिया या आरा से कोई रामकिशोर या रमेश-सुरेश महेश दिल्ली आता है और पहली बार मेट्रो या मॉल में एस्कलेटर देखकर जैसे असहज होता है ठीक वैसे ही लन्दन में पढ़े लिखे एक युवक को गाँव के कु प्रथाओं को देखकर असहजता महसूस होती है. वो इस बात को पचा ही नहीं पाता है कि चार बच्चों को पंगत में बिठाकर मालपुआ खिलाना नियम कानून के खिलाफ है. एक सही ढंग से पढ़ा लिखा सुसंस्कृत आदमी कभी भी इस बात को मान नहीं सकता कि भगवान् के द्वारा बनाये गए इंसान भी एकदूसरे के लिए ऊँचे या नीचे हो सकते हैं. लन्दन में पढ़ा लिखा नायक हिंदी लेखक है. सच्चे लेखक वैसे भी मानवीय मूल्यों को काफी तरजीह देते हैं. वो सिर्फ शब्दों से ही खेलना नहीं जानते. उनके अन्दर चीजों को समझकर कागज़ पर उतारने कि एक कला होती है. वो अगर एक गरीब के आंसू रोटियों से पोछते हैं तो उसके बाद वह यह लिखते भी हैं कि उस गरीब के आँख में आंसू कैसे आए और शायद ऐसा लिखते लिखते खुद भी रो देते हों.
सीरीज का केंद्र बिंदु
इस सीरीज में एक दृश्य है जो काफी प्रासंगिक है और मैंने जिसे काफी करीब से देखा है. किसी भी बड़े बुजुर्ग के पैर छू लेना कोई बड़ी बात नहीं है. माध्यमवर्गीय भारत और ग्रामीण भारत में ये बात आम है. अगर आप शहर के रहने वाले हैं और गाँव गए हैं तो आपको जितने भी बुजुर्ग मिलते हैं उनका पैर छूकर प्रणाम करना जरुरी बात है. हालांकि, अगर आपने मन से ऐसे बुजुर्ग के पैर छू लिए जो कथित तौर पर आपके जाति से निम्न वर्ग के जाती से आते हैं तो फिर बवाल होना तय है. लन्दन में पढ़े दिल्ली में रहने वाले निर्मल पाठक को बस यही चीजें समझ नहीं आई. और जब समझ में आई तो उसे ये चीजें अन्दर से झकझोरने लगी. सीरीज का सारा ड्रामा बस इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है.
जाति न पूछो साधू कि
सीरीज के किरदारों कि बात करें तो जितने भी मुख्य किरदार हैं सभी को इन्हें निभा रहे अभिनेता-अभिनेत्रियों ने न्याय दिया है. मुख्य नायक का किरदार निभाने वाले वैभव तत्ववादी ने अपने किरदार से न्याय किया है. लेकिन सबसे बेहतरीन अभिनय पंकज झा का था. हालाँकि उन्हें स्क्रीन स्पेस ज्यादा नहीं मिला लेकिन अंत तक उन्होंने यह साबित किया है कि वो वही पंचायत वाले विधायक हैं बस इस सीरीज में वो एक विधायक के समधी है. गाँव में ये बहुत आम बात है कि आपस के भाई-पाटीदार के बीच एक जमीन के टुकड़े या घर के हिस्से के लिए खून खराबा भी हो सकता है. जो लोग शहरों में बैठकर गाँव के आम के पेड़, पीपल कि छावं, हरे भरे सरसों के खेत को याद कर आहें भरते है और गाँव कि संस्कृति का गुणगान गाते हैं उन लोगो को यह भी बात ध्यान रखना चाहिए कि इसी गाँव में अब भी 80 वर्षीय घिसु या जोखन अपनी झुकी कमर के बावजूद भी बड़े घरों के चौपालों पर जमीन पर उकडूं होकर बैठता है, बस इसलिए कि वह उन इंसानों के घर में पैदा हुआ जो गरीबी या अभाव के कारण निचले स्तर के कामों में ही लगे रहे और निचली जाती के होकर रह गए. यह सीरीज इसलिए भी जरुरी है कि वो लोग जो आये दिन जनरल कैटगरी में होने का रोना रोते हैं और आरक्षण को खुद के साथ होने वाला अन्याय बताते हैं वो बस एक बार आर्टिकल 15 में पेड़ से लटकी उन लड़कियों के बारे में सोचे, उस दलित दुल्हे के बारे में सोचे जिसे बस इसलिए मार दिया गया क्यूंकि उसने अपने शादी के दिन घोड़ी पर बैठने कि कोशिश की.
कसा हुआ रिसर्च और भाषा/बोली के साथ न्याय
यह बेहद जरुरी सीरीज शायद पंचायत के शोर में भले ही दब गयी हो लेकिन हाल के समय में गुल्लक और पंचायत के बाद आने वाली यह बेहतरीन सीरीज में से एक है. मैं खुद बिहार के उस इलाके से आता हूँ जहाँ इस सीरीज कि पृष्ठभूमि तैयार कि गयी है. कहीं से भी मुझे इसमें एक खामी नजर नहीं आई जहाँ मैं यह कह सकता कि इन्होंने ठीक से रिसर्च नहीं किया. बिलकुल वही भोजपुरी बोली गयी है जो इस क्षेत्र में बोली जाती है. आमतौर पर बॉलीवुड फिल्मों में किसी भी बात में ‘बा’ जोड़कर भोजपुरी का खाका तैयार कर लिए जाता है मसलन “कईसन बा”. लेकिन इस सीरीज में एक दम अपने तरफ का भाषा सुनने को मिला है. सिरीज नहीं देखि है तो एक सिटींग में देख डालिए. और हाँ, चश्मा पहनते हैं तो सीरीज देखते समय एक रुमाल जरुर रखिये. आँखों में आंसू आये तो हाथ से पोछ सकते हैं लेकिन चश्मे पर आंसू के बूँद गिरे तो हाथ से पोछने पर चश्मा से धुंधला नजर आता है.